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यमत्य॑मिव वा॒जिनं॑ मृ॒जन्ति॒ योष॑णो॒ दश॑ । वने॒ क्रीळ॑न्त॒मत्य॑विम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yam atyam iva vājinam mṛjanti yoṣaṇo daśa | vane krīḻantam atyavim ||

पद पाठ

यम् । अत्य॑म्ऽइव । वा॒जिन॑म् । मृ॒जन्ति॑ । योष॑णः । दश॑ । वने॑ । क्रीळ॑न्तम् । अति॑ऽअविम् ॥ ९.६.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:6» मन्त्र:5 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) जिस (अत्यम्) सर्वव्यापक परमात्मा को (योषणः दश) दश प्रकार की प्रकृतियें (वाजिनम् इव) जीवात्मा के समान (मृजन्ति) शोभायुक्त करती हैं, वह जीवात्मा जो (वने) शरीररूपी वन में (क्रीळन्तम्) कीड़ा कर रहा है और (अत्यविम्) इन्द्रियसङ्घात से परे है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय ये दशों मिल कर जीवात्मा की महिमा को बताते हैं, इसी प्रकार पाँच सूक्ष्मभूत और स्थूलभूत ये दोनों प्रकृतियें मिलकर परमात्मा के महत्त्व का वर्णन करते हैं। कई एक लोगों ने दश के अर्थ यहाँ दश उँगुलियें दी हैं, उनके मत में सोम रस दश उँगुलियों से लपेटकर खाया जाता है, इसलिये दश से उन्होंने दश उँगुलियें ली हैं। पहले तो ये वात अन्यथा है कि सोमरस उँगुलियों से खाया जाता है, क्योंकि सोमरस पीने की चीज है, खाने की नहीं। अन्य युक्ति ये है कि इस मण्डल के प्रथम सूक्त मं० ७ में गृभ्णन्ति योषणा दश ये पाठ आया है, जिससे दश इन्द्रियों का ग्रहण किया गया है, उँगुलियों का नहीं ॥५॥२६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यम् अत्यम्) यं सर्वगं परमात्मानं (योषणः दश) दश प्रकृतयः (वाजिनम् इव) जीवात्मानमिव (मृजन्ति) शोधयन्ति स जीवात्मा यो हि (वने) शरीररूपे वने (क्रीळन्तम्) विहरति तथा च (अत्यविम्) इन्द्रियग्रामात्परोऽस्ति ॥५॥